जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं।
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं।
मेरे भीतर कोई मुझसे पूछे है,
मेरे भीतर क्यों इतने डर रहते हैं।
जिन हाथों में कल तक फूल अमन के थे,
आज उन्हीं हाथों में पत्थर रहते हैं।
बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं।
मेरे चुप रहने कि वज़हें पूछो मत,
मेरे भीतर कई समन्दर रहते हैं।