जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं।
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं।
मेरे भीतर कोई मुझसे पूछे है,
मेरे भीतर क्यों इतने डर रहते हैं।
जिन हाथों में कल तक फूल अमन के थे,
आज उन्हीं हाथों में पत्थर रहते हैं।
बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं।
मेरे चुप रहने कि वज़हें पूछो मत,
मेरे भीतर कई समन्दर रहते हैं।
5 टिप्पणियां:
बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं।
आपका ये शेर पढ़ कर सच मैंने जोर से तालियाँ बजाईं हैं...खूबसूरत शेर कहा है आपने...बधाई..
नीरज
अच्छी ग़ज़ल कही है.
आखिरी दो शेर कमाल के-
बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं
मेरे चुप रहने कि वज़हें पूछो मत,
मेरे भीतर कई समन्दर रहते हैं
khubsurat gazal.. badhiya kahi hai aapne..badhaayee..
arsh
मेरे भीतर कोई मुझसे पूछे है
मेरे भीतर क्यूं इतने डर रहते हैं
वाह ! वाह !!
ऐसा खूबसूरत और फलसेफाना शेर
बस आप ही का हिस्सा और खासियत हो सकती है
बधाई स्वीकारें
---मुफलिस---
एक टिप्पणी भेजें