कल रात डिस्कवरी चैनल पर डिस्कवर इंडिया कार्यक्रम देख रहा था. उसमें लद्दाख के निवासियों पर कार्यक्रम था, जिसमें एक परिवार दिखाया गया है जो पश्मीना बेचने के बाद एक भेड की दावत देता है. परिवार चूंकि बौद्धिस्ट है, जहां किसी भी प्रकार की हत्या को पाप माना जाता है सो वह भेड की हत्य के लिये गांव से एक लडके को बुलाता है. लडका रस्सी की सहायता से भेड को दम घोंटकर मारता है ताकि भेड को मरने में कम से कम कष्ट हो. भेड को मारने के बाद लडका उसकी खाल उतारता है, इसके बाद सावधानीपूर्वक आंतों को काटकर निकाल लेता है. तत्पश्चात आंतों में पानी भरकर और मुंह से फूंक मारकर आंतों को साफ करता है. भेड के सारे ख़ून को एक अलग बरतन में इकट्ठा कर लिया जाता है और उसमें जौ का आटा मिलाकर पेस्ट को आंतों में भर लिया जाता है. भरी आंतों को बरतन में पानी डालकर उबाल लिया जाताअ है और पूरा परिवार भेड की दावत उडाता है. माइं जानता और मानता हूं कि सारी दुनिया शाकाहारी नहीं है लेकिन मैं ये सोच रहा हूं कि क्या मैं उस परिवार का सदस्य होने के बाद भी ग़ज़लें लिख रहा होता? इस समय मुझे अपने मित्र कमल किशोर भावुक का ये शेर याद आ रहा है आप भी देखें-
मुस्कराकर पंख नौचे क्या अदा सैय्याद की,
हो गयी संवेदना आहत न जाने हो गया क्या.