रविवार, सितंबर 13, 2009

ग़ज़ल-12



पूरे सात वर्ष अवसाद में रहने के पश्चात इस वर्ष इस ग़ज़ल से मेरे साहित्यकार / ग़ज़लकार की नयी पारी शुरू हुई. अपनी बुनावट में साधारण होने के बावज़ूद मेरे लिये इस ग़ज़ल के इस रूप में बहुत माइने हैं.-





ग़ज़ल-12
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पहले से बेहतर हूं मैं.
सन्डे है घर पर हूं मैं.
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दुनिया से वाबस्ता हूं,
आख़िरको शायर हूं मैं.
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बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
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दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
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जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.

रविवार, सितंबर 06, 2009

ग़ज़ल-11



आज बहुत दिन के बाद ठीक से फुर्सत हुई है. एक अतिसाधारण (अतिसाधारण इसलिये क्योंकि इसे कभी किसी गोष्ठी में पढने की हिम्मत नहीं हुई) ग़ज़ल आप सबके स्नेह के लिये प्रस्तुत करता हूं-

ग़ज़ल

अपनी कमज़ोरियां छिपाते हैं.
और हैं और ही जताते हैं.

कौन सा रोग ये है हमको लगा.
हमको दुनिया के ग़म सताते हैं.

अपना क्या है फ़क़ीर ठहरे हम,
सुख के बदले में दुख कमाते हैं.
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मेरी कमियां मुझे बताते नहीं,
दोस्त यूं दुश्मनी निभाते हैं.
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हक़ बयानी ज़रूर होगी वहां,
सच को सूली जहां चढाते हैं.
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क्यों उठाते हैं लोग यूं पत्थर,
जब कभी हम ग़ज़ल सुनाते हैं.